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भारतीय राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलनों को जनांदोलन का स्वरूप प्रदान करने में हिंदी भाषा का महत्तर योगदान रहा है .आजादी के उपरान्त हिंदी प्रदेशों में बोले जाने वाले दर्जनों भाषाओँ के स्थान पर राष्ट्रीय भाषा के रूप में हिंदी को सर – माथा पर धारण किया गया .यह न थोपा गया और ना ही अधूरे रूप में स्वीकार किया गया .वास्तव में हिंदी भाषा – भाषी क्षेत्रों के लोकप्रिय बोलियों के आगे हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में अंगीकार करने में सभी ने राष्ट्रीयता को सर्वोपरि मान कर विवेकपूर्ण ज्ञान का परिचय दिया .जो राष्ट्र के एकता के लिए मील का पत्थर साबित हुआ . विदेशी भाषा अंग्रेजी के विषय में आश्वासन दिया गया की हिंदी से इसे स्थानापन्न कर दिया जाएगा .दुर्भाग्य की बात है की आजादी के ६७ सालों बाद भी हिंदी दोयम दर्जे के स्थान पर बनी है और विदेशी भाषा लगातार प्रतिष्ठित ,सम्मानित एवं रोज़गार दिलाने वाले माध्यम के लिए उपभोक्तावादी संस्कृति की संवाहक स्वरूप बनती जा रही है .यहां सफेदपोश संरक्षकों की भूमिका जगजाहिर तो है ही . इन सब का सीधा असर ग्रामीण परिवेश में जीने – खाने ,पलने -बढ़ने वाले युवाओं को झेलना पड़ रहा है .वे असम्मान ,बेरोजगारी के साथ दुर्भावना का दंश भी भोगने को विवश है . ऐसी परिस्थितियों में संघ लोक सेवा आयोग के साथ – साथ तमाम राष्ट्रीय प्रतियोगिता परीक्षाओं में हिंदी भाषा -भाषी को पर्याप्त स्थान मिल सके ,जिसकी व्यवस्था करनी ही चाहिए .अगर अवांक्षित व्यवस्था को रूपांतरित करने की मांग है तो इधर -उधर से दोहन होने देने के बजाय सार्थक निर्णय शीघ्र लिया जाना चाहिए . ——————————————————————————————————————————अमित शाश्वत , पटना
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