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भूमि अधिग्रहण के विषय में केंद्रीय शासन ने संसद में बिल प्रस्तुत किया है .इस विधेयक को लेकर संसद से सड़क तक विरोधात्मक आंदोलन पैदा करने की चेष्टा की जा रही है . वास्तव में यह भारतीय मानस के लिए सर्वथा अग्राह्य है की उनकी भूमि किसी अन्य या सरकार को मिले .इसी भूमि के सन्दर्भ में गाँव में आर -पगार से लेकर कस्बों – नगरों में महले – दुमहलों या आलिशान भवनों और अपार्टमेंटों के निर्माण की प्रक्रिया से जुड़े भूमि विवादों को समझा जा सकता है .फिर सरकार इसी भूमि को अधग्रहित कर लेगी का भय खड़ा कर विरोध इक्क्ठा करना सहज हो भी जाता है . विरोध में वैसे राजनैतिक लोग ज्यादा ही आगे हो रहे है जिन्हे २०१३ के आम चुनाव में जनता ने दरकिनार कर दिया था . खैर इनको मौक़ा मिला तो… . यह मुद्दा उसी प्रकार इस्तेमाल करने की परिपाटी को दर्शाता है जिसमे राजनैतिक फायदे के लिए युवाओं को आंदोलित किया जाए भले यहां किसानों की भावनावों को जगाने का प्रयोग दिखता हो . भूमि अधिग्रहण की बात से आतंकित होने वाला बहुसख्यक किसान वर्ग वह ठहरता है जो अन्य के कृषि कार्य में शारीरिक श्रम के बदौलत भारी योगदान देता है . इस मुख्य किसान वर्ग जो मूलतः मजदूर होता है को निश्चित रूप से भारी त्रासदी वाला विस्थापक बनने को “भूमिअधिग्रहण ” पर्याय ही साबित लगेगा जिन्हे अपने निचे धरती नहीं होने का ज्ञान हर पल होता ही है . किसान वर्ग में जिनके पास स्वयं की भूमि उपलब्ध मिले ऐसे खेतिहर है मगर औसत स्वरूप के इन अधिसंख्य किसान के पास जोत अत्यंत सिमित मिलेगा .मतलब इनके पास कृषि भूमि अल्प ही है .जिनका भरण – पोषण ही भारी जद्दोजहद वाला रहता है . यहां तक की नौबत होती रहती है की खेती के ऍन वक्त पर खाद – बीज ,पानी – कीटनाशक के लिए उधार/मदद देने हेतु मुंह जोहने की हालत भी हो जाती है . इन किसानो के परिवार से अगर किसी सदस्य को रोजगार है और वह परिवार खातिर अवलम्बन बना रहता तो उनकी स्थिति कुछ बेहतर मिल सकती है परन्तु यह आश्रय का भरोसा अनिश्चित रहता है .अब उन किसानों पर दृष्टिपात करें जो पर्याप्त अथवा सरप्लस भूमि के मालिक है .ये जरूर संपन्न के अर्थ में ठीक – ठाक मिलते -दीखते है जिसके पीछे कृषि उत्पादन का लाभ नहीं बल्कि शिक्षा ,योग्यता ,क्षमता ,जागरूकता ,अवसरवादिता के साथ दबंग हैसियत ज्यादा मददगार बनती है . कृषि भूमि के ऐसे मालिक ठेकेदारी ,अन्य निर्माण कार्य ,,ट्रांसपोर्ट जैसे व्यवसाइक कार्य अतिरिक्त रूप में भी करते मिलते है .सत्यता में यह भी देखा जा सकता की ये सम्पन किसान सररकारी योजना – लाभ भी कई प्रकार से उठा लेते है .भले योजना का दुरूपयोग हो . खेतिहर मजदुर वर्ग के किसान बहुलता से पलायन की ओर है .ये अन्य नगरों में विभिन्न तरह से परिश्र्म कर जीवन यापन को मजबूर हो रहे है .भूमि अधिग्रहण का प्रभाव इन्हे मुआवजे स्वरूप बेहतर जीवन का जरिया ही बनेगा . अौसत रूप के सिमित जोतवाले किसान जो भूमियुक्त कृषक वर्ग में सर्वाधिक बनता है , उनके वास्तविक स्थिति को “सांप – छछूंदर ” या “..न घर का न घाट का ” से बयान हो जाता है .अधिकांस ऐसे किसान अन्य निश्चित रोजगार के अभाव में बेमन का नगण्य उत्पादक कृषि का बोझ लिए रहते हैं . उन सम्पन किसानों की दबंगता देश में सिमित पूंजीपति वर्ग के सामान ही प्रतीत होती है .जिसकी संख्या अल्प होती है मगर प्रभाव और नेतृत्व द्वारा ये किसान वर्चस्व रखते ही है .यही नहीं लाभ के मौक़ा को ये कभी छोड़ते नहीं , वैसे लाभ इन्हे सहर्ष दिया जाता भी है . भूमि अधिग्रहण सरकार की विकास नीतियों के सफल निर्वहन हेतु आवश्यक तो है . भूमि से जुड़े किसी किसान या अन्य के जीविका सहारा और प्रतिष्ठा परक भूमि को पूरी वैधानिकता से अधिगृहित किया जाना चाहिए .भारतीय कृषि की मूल आवश्यकता तो बेहतर तकनीक तथा अन्य सुविधाए उपलब्ध होने से जुडी है . लेकिन विकास की प्र्वाहात्मक शैली के क्रम में भूमि अधिग्रहण संभावित भी होगा . तब उन विस्थापित किसानों को पर्याप्त मुआवजा मिलना जरूरी है .साथ ही तार्किक रोजगार भी लक्ष्य स्वरूप मिलना तो चाहिए ही . ————अमित शाश्वत
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