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जी हाँ ! वह चल बसी .उसे अरुणा शानबाग के नाम से जाना जाता है .वह शिकार हो गई थी घिनौनी विकृति का . किस हद तक वह घायल ,चोटिल थी की ४२ वर्ष तक अचेत रही .गाहे बगाहे मीडिया ने उसकी आवाज बनने का प्रयास किया .मगर वह अचेतन रही .उसके मन के घावो को समझने की वास्तविक सामर्थ्य विरले ही संभव है .भले अरुणा के समीप रहीं नर्सें व् अन्य इस भाव को व्यक्त करें परन्तु जो दर्द २५ वर्षीय युवती ने लगातार झेला , शब्दों में कह देने भर नहीं माना जा सकता .इसलिए वास्तविक रूप में मानवीयता के पहलु की पड़ताल करने की जरुरत है .1973 में घटी शानबाग के साथ घटना ने उसके सम्पूर्ण जीवन को ख़ाक में बदल दिया .अरुणा के चार दशकों के दर्दनाक जीवन को चर्चा सभी तरफ है .यहां उस ओर भी आम जन को संज्ञान कराया जाना जरुरी है की जिस वार्ड बॉय ने शान को राख बनाया उसकी परिणति किस गर्त में है .उसके प्रति परिवारिक ,सामाजिक ,आर्थिक ,राजनैतिक भविष्य का अंधकार क्या संकेत करते हैं .शानबाग के फ़क़त तिल – तिल खाक होते स्वरुप की ही नहीं अब ज्यादा आवस्यक बनता है की आम अवाम को दरिंदे की विभिन्न हश्र को लगातार बताया – दिखाया जाए .यह किसी कानूनी प्रवधान के जंजीर से भी कारगर साबित होगा .विडम्बना है की –‘जिस माहौल पर मानवीयता की शान चाक हो ,भविष्य की सम्भावना ख़ाक हो और न्याय की सार्थकता रखी ताक हो तब पीड़ित ही मात्र लगता पाक साफ़ हो ‘ , तो अंजामें गुलिस्तां ………. . —————————-अमित शाश्वत
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