Menu
blogid : 19050 postid : 1068299

आरक्षण का बारूद, कुकुरमुत्ता राजनीति एवं समीक्षा- प्रश्न

shashwat bol
shashwat bol
  • 86 Posts
  • 77 Comments

हिंदुस्तान ने अपने आजादी के ६९ वसंत पुरे कर लिए . इसे ६९ वर्ष का अनुभव के रूप में देख सकते हैं और ६९ वर्ष के संघर्ष स्वरूप में भी . कुल मिला कर अनेक झंझावातों के बाद भी देश निरंतर खड़ा होता रहा है .चाहे देश के उच्चस्थ कर्ताओं की वजह से पतन की जद्दोजहद हो अथवा हिंसात्मक ताकतों की विभिषका से उत्पन्न वीभत्स घटनाए , सभी में कॉमन रूप से आम आवाम की जिंदगी , धन व् भविष्य ही दांव पर लगा रहता है . फिर भी ‘देश चलता रहा है ‘. यही ताकत है जो आम जन की जिजीविसा को बयान करता है . विगत कई दशकों में अधिकांश शासन – काल में कुछ प्रगति के ‘स्वभाविक भूमि ‘ को गौण किया जाये तो मालूम होता है की वास्तव में हम जो पाने के हक़दार थे वह तो हमे मिला नहीं हीं उलटे आमोआवम की भावना को पूरा दोहन करने की चेष्टा कदम – कदम पर तथाकथित राजनैतिक शक्तियां जरूर करती रहीं है . अनेक मुद्दो को राजनैतिक पार्टियां अपनी गिद्ध दृष्टि के जद में रखती है . जिनका पूर्ण दोहन सत्ता पाने या शासन के विरुद्ध ललकारने में किया जाता है . तब आरक्षण जैसे जन लुभावन मुद्दे को राजनीती ने मुद्दे के स्थान पर हथियार के रूप में अख्तियार कर लिया . यह आरक्षण का प्रावधान संविधान प्रदत सुविधा के रूप में अंगीकृत किया गया . मगर इसके अपनाने के पीछे तर्कपूर्ण तथ्य बताया तो जाता है पर इसके तहत अधिकांशतः राजनैतिक लाभ की मानसिकता कायम रही . अंग्रेजी शासन काल के अंतिम दिनों में ऐसी ही व्यवस्था की नीव डाल दीगई थी जो आगे ‘ फुट डालो राज करो ‘ की मानसिकता को जिन्दा रख ले . जिसके द्वारा आजाद हिंदुस्तान के लिए गंभीर संकट बना ही रहे . ठीक इसी प्रकार हार समीप मानने वाले शासक आज भी देश – प्रदेश में जाते जाते बाँटने की पूरी करवाई कर देते है .अर्थात ” हारेंगे तो हूरेंगे , जीतेंगे तो थुरेंगे ” . वर्तमान आरक्षण विवाद को विपक्ष तरजीह भी इसी अंदाज में देते दिखने लगे है . किसी भी मुद्दे को समर्थन देने के पीछे राजनितिक गण का स्वयं की मंशा अधिक होती है जिससे लोकतंत्र का बहुसंख्ञक उसके पक्ष में झुक जाए व् सत्ता प्राप्ति का मार्ग आसान हो जाए . आज गुजरात जैसे राज्य में से किसी जाति विशेष द्वारा आरक्षण की मांग किया जाना आश्चर्यजनक हरगिज नहीं है . जिन्हे आरक्षण चाहिए उनके लिए समर्थवान मांग करें और उच्चस्थ लोग समर्थन करे तो ग्लानि होती है . क्या इस देश के नागरिक को अपनी बात कहने के लिए कंधे का सहारा चाहिए या स्वयं को अन्य के भरोसे छोड़ कर उनके महत्वकांक्षा की वेदी पर स्वयं को आहूत करना नियति हो गई है . अन्ना – रामदेव आंदोलन की उपज केजरीवाल दीखते है जो जनसमुदाय की दिल्ली में पसंद हैं .आगे चाहे परिणाम जो हो .लेकिन मौके का लाभ उन्हें मिला . किसी को उच्च – समर्थ पदासीन के विश्वासभजन बनने का सुअवसर मिलता है वह चेक भुना कर जगह पा जाता है . इन सब का आखरी अंजाम वारा न्यारा के बदले भले खरा व् खारा आठ आठ आंसू तक जा कर हीं थमे पर सत्ता खून के चस्के समान हो गया लगता है . तो आरक्षण के पालन – मांग के पीछे मूल भावना को स्थानापन्न करके तथाकथित रूप से राजनीतीक कुचक्र ही रहता है . जिसका सम्पूर्ण प्रमाण उन जातियों में देखि जा सकती है जिन्हे वर्षों से आरक्षण प्राप्त है मगर नौकरी या अन्य कुछ लाभ के अतिरिक्त पूरा जातिगत समाज का कल्याण संभव नहीं हो सका है . इस आरक्षण लाभ का फायदा उस जाती की ही अगडी पंक्ति उठती है . नजर गड़ा कर देखें तो उनके ही अगड़े लोग अपनी बिरादरी को लाभ के सवाल पर पीछे धकेल दिए रहतें है . नतीजा आरक्षण का लाभ तो हुआ है मगर वोह आरक्षित वर्ग में भी बड़ी सीमितता लिए है मतलब पिछड़ों में भी तथाकथित अगड़े विकृत सामंती प्रकृति जैसे है . वैसे इसके लिए सर्वेक्षण संभव है भी . अब जो आरक्षण से वंचित है जिन्हे अगड़ा या उच्च जाति माना गया , उनका बड़ा भाग भी स्वयं को अवसर से वंचित मानने लगा है .नतीजा राजनीती के ये विवाद और भी दोहन का होता गया है . जिसके फलस्वरूप आमजन को कतिपय नेतृत्वकर्ता ऐसे मुद्दो पर भेड़ियाधसान प्रयोग कर लेते है . पूर्व प्रधानमंत्री वी पी सिंह जी ने इसी आरक्षण मुद्दे के बल अपनी राजनीती को कायम रखने की कोशिश की थी लेकिन इतिहास गवाह है की बहुसंख्यक की बात होने पर भी आखिर वे दरकिनार हो गए , वह भी आमोआवम के द्वारा ही . हलांकि कई युवाओं की खामखा जान चली गई . आज हार्दिक पटेल को अगर महवकांक्षा पूरी करनी है तो आगे बढ़ कर समर्थवान , सशक्त करने वाले देश हित के तमाम मार्ग पर कदम बढ़ाना ही चाहिए न की आरक्षण के मुद्दे को बांस कूद के लिए प्रयोग करना चाहिए . उन्हें समझना होगा की उन्हें भी बम की माफिक सदुपयोग करने वाले राल गिरा रहे है . आरक्षण के मुद्दे को छेड़ कर शैतान का संदूक खोलने जैसा कार्य बहादुरी भले लगे पर हिंसा का सहारा ले कर आंदोलन की राह दिशाहीन लगती है . समूचा देश चल रहे आगज से दिशा पकड़ने लगा , ऐसे वक्त इस मुद्दे से देश का भला हरगिज नहीं हो सकता . जिस असंगठित देश को संगठित करने का ऐतिहासिक काम सरदार पटेल ने किया और ‘ लौह पुरुष “कहलाये . उसी प्रदेश को आरक्षण के मुद्दे से हिंसा , तनाव में ले जाने की अविवेकी कार्य विचलित करती है . अब अगर इसे मुद्दा बनाना ही है तो आरक्षण का आधारगत विवेचन की ज्यादा आवश्यकता है . जिसमे मूल रूप से आर्थिक आधार हो . साथ ही आवश्यक अन्य व्यवस्था भी हो . इस सन्दर्भ में जब चर्चा , विवाद या मांग का आंदोलन हो रहा है तो जरुरी यह है की इसके लिए अब जनमत का विशद सर्वेक्षण कराया जाये जिसके लिए विभिन्न स्वरूप में प्रत्येक मतदाता के तार्किक विचार व् पक्ष को प्राप्त कर आरक्षण के लिए नई समीक्षात्मक प्रक्रिया पूरी की जा सके . —— अमित शाश्वत

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh