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आजादी के हिंदुस्तानी दीवानों ने गाव , कस्बो , खेत – खलिहानों से लेकर राज्य राजधानी और बड़े – बड़े शहरों में सड़कों पर धूल फांकी और संघर्ष की बुनियाद पर देश को स्वतंत्रता के सम्मान से नवाजा . इस दरम्यान सैकड़ों हिंदुस्तानी अपनी जवानी व् जान कुर्बान किये . आज समूचा भारत अपनी आजाद जिंदगी स्वेक्क्षा से बिता रहे तथा अपने लोकतंत्र के प्राप्त अधिकार से हक़दार रूप अख्तियार करते हैं . बिहार ने तो प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में बाबू कुवंर सिंह के नेतृत्व में भाग लिया था . इतना ही नहीं ८० वर्ष के बाबू साहेब ने गोली लगे हाथ को काटने का अत्यंत साहस व् वीरता पूर्ण कार्य करके ऐतिहासिक मार्गदर्शक की भूमिका बनाई . इसी बिहार ने जयप्रकाश नारायण के लोकनायकत्व में आपातकाल के खिलाफ आधुनिक हिन्दुस्तान का महत्वपूर्ण राजनैतिक संग्राम सफलता से संपन्न किया . बदलाव की भूमि बिहार ने प्राचीन भारत के वैस्विक बौद्ध धर्म के स्वरूप का निर्माण , प्रसार भी करने में कोताही हरगिज नहीं बल्कि शानदार पहल की थी .जिसने अपना प्रभाव विश्व में आज भी कायम किया हुआ है . इस बिहार में प्रजातंत्र के बीच राजा बुझ रखने वाले राजनैतिक शासको ने भी नेतृत्व किया है . १५ वर्ष के शासन के लिए आड़े हाथ लिए जा रहे एक नेतृत्व ने अपने से पांच वर्ष पूर्व १९८५ में नव अंगीभूत कॉलेजों को साजिशन १९९० में deconstitute करने की कोशिश से लेकर तमाम असफल चेष्टा की . जिससे पूर्व सरकार की नियुक्तियां व् क्रेडिट मिटाया जा सके . हास्यास्पद रूप से एरियर , प्रमोशन मांगने वाले इन शिक्षा – कर्मियों को ” कोख मांगे गए भतार गवाए ” कहा गया . (भले आज इसे खुद समझने जरुरत आ गई हो) . लेकिन शिक्षकों की संघर्ष क्षमता ने पटना उच्च न्यायालय से सर्वोच्च न्यायलय तक लड़ाई लड़ी और अपने पक्ष में फैसला पाया . २००३ के बाद विश्वविद्यालय ने औटोमस रूप से फैसला २००५ में दिया . २० वर्ष के बाद एक पड़ाव मिला – आंशिक ही . पर पिछले सरकार की तरह वर्तमान सरकार ने वह मामला पुनः सर्वोच्च न्यायालय के पास जाने को बाध्य कर दिया . अब भी यह मामला २००९ से पटना उच्च न्यायलय व् फिर २०१० से उच्चतम न्यायलय में लंबित चल रहा है .मतलब साफ़ है अपनी चुनी गई सरकार ने इन्हे लगातार सड़क पर संघर्ष को बाध्य किया .पठन – पाठन एव निर्माण के फ़िक्र से ज्यादा नौकरी – करियर में झूलते चले आ रहे ये शिक्षा कर्मी प्रताड़ना के जिन्दा – मृत – बीमार मिसाल हैं .मानवाधिकार शब्द इन्हे हास्य ही प्रतीत होता है . अब बिहार के वर्तमान नियोजित शिक्षकों की बात देखे तो कुछ साल पहले इन्हे सरकार से जवाब मिलता रहा की भगवन भी इनको नियमित नहीं कर सकते . इसके बाद इनके लाठी खाने की पुलिसिया जुल्म सरकार निरंतर चलाती रही . सड़क पर इनका डेरा आम हो गया . दिल्ली में २०१४ में सरकार बदली तो बिहार की पतवार अन्य व्यक्ति नेता को मिल गया . कुछ सॉफ्ट कॉर्नर लगा . पुनः पुराने नेतृत्व ने कमान थाम के अपनी देवलिया स्थिति ठीक करने के उद्देश्य से इनकी मांग मानने की भूमिका दिखाई है .लगातार ऐसे फैसले होने लगे हैं जिसे असंभव माना गया . अभी तो दिल्ली और पटना के तनाव ने इतना जद्दोजहद किया है की वर्तमान नेतृत्व ने विगत दिनों संतुलन खो कर समस्तीपुर में एक विभाग के विरोध करते कुछ कर्मियों को सड़क पर ला देने की कुम्हड़ भातिये सरीखी धमकी जनसभा में दी गई . उन्हें विरोध बंद करने का आक्रोशित आदेशात्मक धमकी बिहार में गड़बड़ माहौल को ब्यान करता है . दिल ने अपनी हालत जाता दिया , कमजोर कर्मियों की ओर दिमाग सजगता गवां बैठा . मीडिया ने पटना और राष्ट्रीय चैनल पर इसे खूब चलना शुरू कर दिया है . इन वाकया से स्पस्ट है की बिहार में आम से लेकर मुलजिम तक सड़क पर संघर्ष यों ही नहीं षड्यंत्र स्वरूप भी करता है . आम की मज़बूरी है और सत्ता की राजनीति धूल उड़ाती इन्ही सड़को पर तमाशा देखती है . ऊँगली पर सामने वाले को समझती ही है . भले मीडिया के सामने तयारी व् संतुलन दिखे मगर कुल मिला कर लोकतंत्र इन पर लबादा भर लगता है . न्याय कौन , कब और कितना देगा शायद कर्ता भी नहीं समझता होगा . क्योंकि कोई भी संतुलन कब क्या रूप ले – क्या दे खुद को भरोसा भी नहीं दीखता . खैर समय का चक्र कया चक्कर लागए ,कहना कठिन जैसा है लेकिन सड़क तो पनाह दे देती है अभ्यास हो तो बेहतर अन्यथा पैराशूट से उतर के भी अभ्यास करा दिया करती है .चलो ना चलों सड़क चलती है . ———————————- अमित शाश्वत
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