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लोकतंत्र की बात ही अलग अंदाज में पलते बढ़ते चली आ रही है . अगर किसी मानिंद ने अपने बच्चे को जन – सामान्य के साथ छोड़ दिया हो तो अधिसंख्य इसे कमजोरी या डरपोकपना अथवा चालाकी कुछ भी कहते हैं . अगर किसी ने आम के बच्चे संग विद्यालय में भेज दिया हो तो कई विशेष अंग्रेजी स्कूलों में अपने पढ़ते बच्चों के बदौलत खुद को उक्त मानिंद या मान्य के समक्ष नहीं बल्कि आगे तक जाहिर करते हैं . बराबर मांग होती है की आम व् ख़ास सभी के बालक समान रूप से पले – बढ़े . मगर होता है भी वही और यह ही हो भी सकता है . क्योकि आधुनिक परिस्थितियों में हिन्दुस्तान ने इतने भर की मानसिकता विकसित करने में ही चेष्टा के द्वारा पहुंच बनाई है . वह भी अपनी आवश्यकता मात्र पूर्ति करने तथा जवाबी प्रतिक्रिया स्वरूप के जद्दोजहद में . इन सारी चर्चाओ का लब्बोलुआब यह समझ लेना ही चाहिय की जिन्हे इतिहास या पुरातन स्वरूप से नकारात्मकता के लिए दोषसिद्ध आसानी से किया जाता है जिससे मूलतः स्वार्थ के अंधेपन की तथाकथित राजनैतिक शैली ही प्राकट्य होती है . क्योकि अनुकरण और मार्गदर्शन की जरूरत में वैसे आरोपित परम्परा या विचारधारा के ही पदचिन्हो को परखने की नौबत आती ही है . तब लाभ के गणितीय सुलझाओ हेतु पदचिन्हो को पढ़ फायदा पाना चाहते हो और पदचिन्हो को मिटाने की ख्वाहिश में उपहास , व्यंग या अन्य कुत्स प्रयोग करते ही जाते हैं . एक किशोर पर मेरी दृष्टि गई तो मुझे दिखा की उक्त किशोर ने अत्यधुनिक पहनावे और हेयर स्टाइल में था , तब मुझे दुःख और मलाल हुआ जब मुझे दिखा की उसने अपने पांव में काल धागा बाँध रखा था . मतलब दीखता भी है जब किसी बड़े महापुरुष या मानिंद के संग या नाम पर लाभ के हिसाब से समीकरण बैठाया जाता है . फिर लोकतंत्र के आत्मा की ऐसी तैसी करने का मानो बीड़ा ही उठा लिया गया हो , इतना घायलात्मकता से कार्य किया जाने लगा है की कब अपना पराया या पराया अपना हो जाता है .नतीजतन गिरगिटों ने शहर छोड़ने की ठान ही ली है क्योकि आज के राजनीतिज्ञ की रंगबाजी-रंगीनियाँ घोर रचनात्मकता में बहुआयामी ही नहीं इक्क्षाओं व् आवश्यकता के अनुरूप पथ निर्माणी हो चली है . नैतिकता को नील के माफिक रंग रोगन में प्रयुक्त कर हुआँ – हुआँ करते गीदड़ों की संख्या उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है . आगे क्या होगा! परमपिता ही जाने . ——————————————— — अमित शाश्वत
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