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हिंदुस्तान ने गुलामी के जंजीर को सहा , देखा और समझा है . जिससे निकलने के स्वर्णिम प्रयास का ऐतिहासिक उदाहरण दुनिया के समक्ष है . लेकिन गुलामी की जंजीरों में जकड़े रहे हिंदुस्तान में पाश्चात्य नासमझी का भी एक विचार उदित हुआ . जिसकी परिणति स्वरूप धन के महिम्न को भारतीय काष्ठय मनोभाव से पराकाष्ठ शैली में जीवन यापन की भूमिका निर्मित हुई .सुख और धन का अन्योनाश्रय सम्बन्ध प्र्व्वाहित और स्थापित होने लगा . फिर जब आजादी की उड़ान में खुला मैदान सामने आया तो मानों स्वार्थ की पथरीली विचाधारा ने हनुमान कूद जैसी शक्ति प्राप्त कर ली .यह कामनाओं से विकृत सामजिक , आर्थिक , राजनितिक क्षमता और सम्पन्नता के रूप में चरितार्थ हुआ . इसके नीव निर्माण में काले धन की जोश तथा चकाचौंध ने इमारत की अट्टलिकाएं गगनचुंबी पंहुचा दीं . लेकिन इन सब से इतर एक छोटा वर्ग ऐसी अवस्था से सामने झूझने में लगा व् स्वतंत्रता के वावजूद संघर्ष से चोली – दामन सी दोस्ती निभाई . और समझौता की वैचारिक पृष्ठभूमि वाले नजदीकी रखने की शैली में रहे , जिनमेसे कुछ ही कमल सदृश्य निर्लिप्त रहे . बड़ा समूह वही किया जो उसके साम्मर्थय के अनुरूप था . अर्थात जीवन की मुलभुत मांग के समक्ष आत्मसमर्पण . यह भी बेहिचक मानना ही पड़ेगा की ये तबका विकृति में शामिल हो साथ देता लगता परंतु एकप्रकार का मज़बूरी में समझौता रहा .संघर्ष चुनने वाले अपने स्थान से निरंतर प्रयासरत हुए रहे . निर्लिप्त प्रकृति वाले अनीति में निकटता के वावजूद अपने वसूलों और मानवीय मूल्यों की परिधि में आत्मतत्व को घेरे रहे . जिसका मूल्यवान सुखद परिणाम हिंदुस्तान के भविष्य के लिए नाकारात्मकता को स्वरूप से समझ सकें . सिर्फ इतना मात्र नहीं कभी कभी तो ऐसे आत्म नारायण सारथि रूप में लगाम के लिए भी सक्षम साबित हो सके . लेकिन जिनके पास असाधन और आवश्यकता के दवाव का बोझ नहीं उठा सकने का अख्तियार भर था वे लगातार अनैतिक वर्ग के प्रति मजबूर सहयोगी ही हुए . लेकिन कतिपय ऐसे लोग भी सीधे एक मात्र संघर्ष करने वाले के संपर्क से भी इन बहुसंख्यक की वैचारिक भूमिका में मुलभुत नैतिकता को जीवटता देते रहने में संलग्न हुए भी रहे . जिसने समय – समय पर सीधा संघर्ष प्रमाणित किया भी . भले इनका संघर्ष स्वयम से जुड़ा हो या संघर्ष का स्वरूप व् संगठन अनियंत्रित लगे परंतु इनके सहयोग के साम्मर्थय को असीमित समझ लिया जा सका . हालांकि इन विभिन्न मानस के वर्ग में जिनके विचारधारा में नैतिकता को व्यापक स्थान मिला वैसों को ” इंसानियत के रोग ” से पीड़ित जाहिर karke अनीति सम्पन्नों ने हतोत्साह की भूमिका दिखाई .साथ में इनके प्रभाव को शून्य करने की चेष्टा की . परंतु इतना मानने में हिचक नहीं की हिंदुस्तान की सभ्यता – संस्कृति में आत्म संस्कार से रची – बसी नैतिकता की गहराई अथाह है . जो सुप्त रहने पर भी समय की प्रकृति के अनुरूप जागृत हो पड़ती है . आज के हिंदुस्तान में सुखद स्वरूप से ऐसे विचारधारा को प्रश्रय रहने की सम्भावना आश्चर्यजनक प्रकृति से जाग पडी है . जिसमे काले धन का ओज कालिख का बोझ और इंसानियत महा योग के स्वरूप में प्रणीत दिखने लगा है . ————— अमित शाश्वत
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