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हिंदुस्तान में व्यंग की एक कार्यशैली कही जाती है, जिसमें यह माना गया है कि किसी भी कार्य, संस्थान या व्यक्ति को सरकारी ठप्पा लग जाए तो उसका बेड़ा गर्क होगा ही. यह ठीक है कि उस मान्यता में बदलाव की संभावनाएं दिखने लगीं हैं. फिर भी कुल मिलाकर सरकारी रुतबे में ठसक जरूर रहेगी, चाहे किसी-किसी जगह ही सही. साथ में यह भी बहुधा देखा जाता है ही कि सरकारी होने से उसकी क्रिया-प्रक्रिया और शैलियों में बड़े गर्वीले व जोशीले संस्कार दिए जाते है. भले पकड़े जाने से शर्मीले रूप भी सामने आते ही हैं.
अब ज़रा हिंदी को देखें- यह भी मान्य राजभाषा है. सार्वजनिक तथा विशेष रूप से बाजार के सन्दर्भ में तय है कि बड़े-बड़े विदेशी और देशी कंपनियां अपने माल, प्रचार और इसका महत्तर भार अंग्रेजी और अंग्रेजीदां को ही सौंपे रहती हैं. जिनका प्रोडक्ट पूरी तरह सुदूर देहातों और ग्रामीण क्षेत्रों में बाजार बनाये हो, उनके कार्य कर्मी से लेकर सारा कामकाज अंग्रेजी के मार्फ़त ही किया जाता है.
कहने का तात्पर्य यह कि हिंदुस्तान का कोई भी शिक्षित या अनपढ़ भी दूसरे की लुभावनी बातें अन्य भाषा ( अंग्रेजी ) में जान पाता है. जिससे वह दिग्भर्मित और आकर्षित किया जा सके. इतना ही नहीं गंभीर रूप से अपने सहज बोल-चाल, मान्यता तथा समझ के प्रवाह को खोने की विवशता से ग्रसित भी किया गया. यह चर्चा यत्र-तत्र के स्वरूपगत संज्ञान हेतु ही की गई.
इससे यह पूरी तरह से प्रकट है कि भाषा का जुड़ाव बाजार से होगा ही और वह भी आम होगा. तो ऐसे अनियंत्रित स्थान व व्यक्तियों को भाषा के बोझ तथा द्विधा से दंशित किया जा रहा है और अपना कल्याण करके कम्पनियां व कर्ताधर्ता जमींदारों और सामंतों को पीछे छोड़ चुके हैं. अब हिंदी राजभाषा या राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता प्राप्त है. लेकिन सरकारी स्तर से इसके बेहतरी के लिए खर्चीले और सैद्धांतिक रूप में बोझिल प्रयास ही दिखते हैं, जिसका नतीजा हिंदुस्तान में अंग्रेजी बोलना बड़ी भारी योग्यता आज भी बनी ही है.
अभी जापान से आये अतिथि प्रधानमंत्री शिंजो अबे ने दृष्टव्य रूप में अपना भाषण स्वयं की भाषा में दिया है. जिसे ऐसी मान्यता व थोपी गई शैली के सापेक्ष “ठोस सभ्यता-सांस्कारिक दायित्व का सामर्थ्य” समझना ही होगा. उधर शिक्षण क्षेत्र में सरकारी विद्यालय, महाविद्यालय में हिंदी के विशिष्ट रचनाकार की कृतियों व संघर्षपूर्ण व्यक्तित्व को दरकिनार भी कर दिया जाता है, जिससे साहित्य से जुड़ाव तो होता ही नहीं और छात्रों में संवेदनशीलता का भाव पहुंचाने का अवसर भी निकल जाता है.
अगर उत्कृष्ट साहित्य रहा भी तो कमाऊ शिक्षा, शिक्षक व अभिभावक इसे तेल लेने भेज देते हैं और फिर अंतराल के उपरान्त उपलब्धि स्वरूप छात्रों के क्रिया-प्रक्रिया को लानत भेजते थकते नहीं. आज “हिंदी दिवस” के पुण्य सन्दर्भ में यह भी कहना आवश्यक है कि जिस प्रकार अंग्रेजी ने हिंदी को दोयम दर्जे की परिधि में घेरकर रख छोड़ा है, ठीक उसी तरह से विभिन्न लोकभाषा को हिंदी ने भी बिना आरक्षण के निम्न श्रेणी में मानो धकेल रखा है.
इसमें विशेष रूप से भोजपुरी की अवहेलना मार्मिक है, जिसके ही वैश्विक गणना तथा विभिन्न देशों ( फिजी, गुयाना, मॉरीशस आदि दर्जन भऱ देश ) में क्षेत्रगत प्रसार को लेकर हिंदी ने वैश्विक भूमिका का स्वपन देखा है. कतिपय हिंदी के तथाकथित रंगे विद्वान भोजपुरी को संविधान की अष्टम अनुसूची में स्थान देने को हिंदी का अहित कहके अपने विद्व्ता का रंग बचाने में लगे हैं, जबकि मेरा मानना है कि जिस प्रकार जातिगत या अन्य आधार से आरक्षण मिलने से गरीब व वंचित वर्ग भी विकास की ओर बढ़ा है, उसी तरह लोकभाषा को भी मान्य करके सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक विकास बड़े व स्थाई स्वरूप में संभव है.
कहना जरूरी नहीं कि आरक्षण की सुविधा ने देश के कमजोर वर्ग की सफलता से राष्ट्रीय उत्थान को व्यापक भूमिका की ओर अग्रसर किया है. इसी प्रकार भोजपुरी को संविधान के अष्टम अनुसूची में स्थान देने से हिंदी स्वमेव मजबूत होगी. हिंदी का महत्व बढ़ेगा. थोपी जा रही अंग्रेजी की जगह पर हिंदी को पूरी प्रतिष्ठा भी मिलेगी. अब हिंदी के विकास व समग्र स्थापना के लिए हिंदी-अंग्रेजी से समानता खातिर मात्र ताजभाषा सा दिखावा न रहे, बल्कि अपने आधार से जुड़े रहने के लिए लोकभाषाओं की जमीनी हकीकत मानें तथा ठोस, व्यापक और व्यवहारिक रूप में धरातल पर वास्तविक राष्ट्रभाषा प्रमाणित हो.
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